जरनल जोरावर सिंह biography hindi 

जरनल जोरावर सिंह biography hindi | jarnail zorawar सिंह वैसे तो सिख इतिहास में बहुत से शूरवीरों की गाथाएं प्रचलित है लेकिन आज हम जिस शूरवीर की कहानी आपको बताने वाले हैं उनके बारे मे बहुत कम लोग ही जानते है , लेकिन हमारा तो काम ही यही है – इतिहास के समुंदर से उन शूरवीरों की वीरो  गाथाए निकाल कर दुनिया के सामने रखना जिन्हे दुनिया के सामने आने ही नहीं दिया गया |

तो आज हम पंजाब के जिस शूर वीर की बात करने वाले है उनका नाम है –  जरनेल जोरावर सिंह | jarnail zorawar singh

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दोस्तो बहुत मुश्किलों के बाद इनका इतिहास जुटाया गया और इसमे 4 लोगो का बड़ा योगदान रहा –

 ज्ञानी दित्त सिंह  – प्रोफेसर गुरमुख सिंह – भाई करम सिंह  – और भाई कांन सिंह नाभा ने  ,  जोरावर सिंह का इतिहास इकट्ठा करने में बहुत लंबी लंबी यात्राएं की |

और एक बात और बताते चले ! की जोरावर सिंह जी की बायोग्राफ़ि तो इंटरनेट पर मिल जाएगी …लेकिन कही भी किसी ने भी  उस घटना को कवर नहीं किया जिसके लिए दुश्मन ने भी उनकी बहदुरी देख उन्हे शेरो का शेर टाइटल दिया | आखिर हत्या करके फरार हुआ बालक कैसे बना जनरल जोरावर सिंह?

तो चलिये इनके जन्म से लेकर शहादत तक शूर वीरता से भरी  उन घटनाओ की गाथा बताते है जिनके बारे जानकर किसी के भी रोंगटे खड़े हो जाए |

 

जरनल जोरावर सिंह biography hindi 

 जरनैल जोरावर सिंह जी का जन्म 1786 में हिमाचल प्रदेश के कहलुर रियासत के बिलासपुर में एक डोगरा राजपूत परिवार में हुआ था। जब उनकी आयु 18 19 वर्ष की हुई तब तक उन्होंने सभी हथियार चलाने सीख लिए थे ।

 उनकी विशालकाय ताकत और फुर्ती के आगे कोई भी टिक नहीं पाता था | जरनल जोरावर सिंह के जीवन की एक ऐसी घटना के बारे में हम ज़िक्र  करने वाले हैं जिस घटना ने इनको पूरे विश्व में प्रसिद्ध कर दिया था |

 

 जम्मू के एक किले में सिख फौज को उसकी सुरक्षा के लिए तैनात किया हुआ था उस किले के ऊपर अचानक हमला हो गया |

 उस किले में जो मुख्य अफसर तैनात किया गया था वह  उस हमले से घबराकर दुश्मन फौज के साथ समझौता करने की रणनीति बना रहा था जरनेल जोरावर सिंह ने अपने कमांडर की कमजोरी को पहचान लिया था.

 

 उसके बाद जोरावर सिंह ने अपने भरोसे वाले सिपाहीयों को इकट्ठा किया और अपने कमांडर को बांधकर  कमरे में बंद कर दिया और खुद फौज की कमान संभाल ली और ऐसी युद्ध नीति तैयार की दुश्मन फौज को वहां से भागना पड़ा इस युद्ध में बहुत से सिपाही मारे गए और बाकी मैदान छोड़कर भाग गए.

 इस घटना के कारण जोरावर सिंह प्रसिद्ध हो गए और उन्होंने इस युद्ध की पूरी घटना लिखकर महाराजा रणजीत सिंह को भेज दी.

उसमें जोरावर सिंह ने यह भी लिखा कि मेने अपने कमांडर को गिरफ्तार करके कमरे में बंद किया इस बात की जो सजा महाराज देना चाहे वह दे सकते हैं मैं उस सजा को भुगतने के लिए तैयार हूं।

 

 जोरावर सिंह का खत पढ़ने के बाद महाराजा रणजीत सिंह ने खुद उस बात की जांच करवाई और जोरावर सिंह के द्वारा बताई गई सारी बातें सच निकली।

 

 उसके बाद उस किले के फौजदार को बर्खास्त कर दिया गया और उसके स्थान पर जोरावर सिंह को फौज का मुखिया बना दिया गया।

 इसके बाद जोरावर सिंह के हौसले बुलंद हो गए और जोरावर सिंघ ने अपनी फौज में और नौजवानों को भर्ती करना शुरू कर दिया।

 फिर जोरावर सिंह ने जम्मू के किले में से बाहर आकर पूरी सोच समझ और फौज  की तैयारी करके सिख राज की सीमाओं को और आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष शुरू कर दिया|

 जोरावर सिंह 1820 से लेकर 1841 तक लगातार युद्ध करता रहा जब तक वह शहीद नहीं हुआ . लेह उस समय एक देश हुआ करता था उस पूरे इलाके को हराकर जरनल जोरावर सिंह ने सिख राज का हिस्सा बना दिया था |

 

 लेह का इलाका जीतने के बाद वह तिब्बत की ओर आगे बढ़ता गया और तिब्बत का बहुत सा इलाका भी सिक्ख राज में मिला लिया ,आगे बढ़ते हुए जरनल जोरावर सिंह तिब्बत की ऐसी चोटी पर पहुंच गए जहां पर चार देशों की सीमाएं एक साथ मिलती थी भारत -चीन -अफगानिस्तान और रूस | उस चोटी का नाम था पामीर

 

 जोरावर सिंह जब उस चोटी तक पहुंच गए तब अंग्रेजों को जब इस बात की सूचना मिली तब अंग्रेज घबरा गए और वह सोचने लगे यदि जोरावर सिंह ने रूस के साथ समझौता कर लिया तब इन दोनों का एक ही दुश्मन होगा वह होंगे अंग्रेज और भारत पर सिख और रूस का राज होगा।

 अंग्रेज इतने चालाक थे उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह के साथ मुलाकात की और जोरावर सिंह के खिलाफ महाराजा रणजीत सिंह के मन में शक पैदा कर दिए। और दूसरी तरफ अंग्रेजों ने अपनी एक फौजी टुकड़ी कनिंघम की अगुवाई में जोरावर सिंह की और भी भेजी।

 यह फौजी टुकड़ी जोरावर सिंह की ओर इसलिए भेजी गई थी ताकि जोरावर सिंह को गुमराह किया जा सके कि अंग्रेज भी यहां पर कब्जा करने के लिए पहुंच चुके हैं

 

 इस समय के दौरान कनिंघम  के साथ जोरावर सिंह की मुलाकात भी हुई जोरावर सिंह ने कनिंघम से इस पहाड़ी इलाके के बारे में कुछ जानकारी लेनी चाहिए

 

 कनिंघम ने पूरी साजिश के तहत जोरावर सिंह को गलत दिशा में भेज दिया जोरावर सिंह अंग्रेजों की इस साजिश को समझ नहीं पाए। कनिंघम ने जोरावर सिंह को ऐसे तूफान में धकेल दिया था कि वह वहां से निकल नहीं पाए और वह वहां से निकलने की बजाय बर्फीले पहाड़ों में जाकर छुप गए।

 

 वह ऐसा खतरनाक इलाका था वहां पर ना खाने के लिए खाना-ना पीने के लिए पानी न आग जलाने के लिए लकड़ी और ना घर बनाने के लिए छत और ना ठंड से बचने के लिये कपड़े थे ऐसे हालातो में बहुत से सिक्ख सिपाही मारे गए और बाकी बच्चे बीमार हो गए और कुछ सिपाहियों के बर्फ लगने के कारण हाथ पैर खराब हो गए।

 

 2 महीने तक ऐसा ही संघर्ष सिखों के साथ चलता रहा यदि जोरावर सिंह कनिंघम की साजिश को समझ पाते तो उनके यह हालात कभी ना होते।

 

 जोरावर सिंह काबिले तारीफ जरनेल थे जिन जोखिम भरे हालातो में जोरावर सिंह फंस चुके थे यदि वह वहां से कोई संदेश लाहौर महाराजा रणजीत सिंह को भेजना भी चाहते तब भी उस संदेश को पहुंचने में 2 महीने लग जाते।

 

 यदि उनका गुप्तचर वहां तक पहुंच भी जाता तो वहां से राशन या फिर कोई और सामान वापस लेकर जोरावर सिंह तक पहुंच पाता या नहीं इस बात की कोई संभावना नही थी यह काम ना मुमकिन था ।

 ऐसे हालातो में लाहौर दरबार की तरफ से कोई भी राहत सामग्री भेजना मुमकिन नहीं था इस मुसीबत को कम करने के लिए जोरावर सिंह ने बड़ी सूझबूझ से काम लिया ।

 

 जोरावर सिंह जिस इलाके पर कब्जा करते थे वह उस इलाके के किसी भी इंसान को तंग या परेशान नहीं करते थे उस  इलाके की औरतों की पूरी इज्जत किया करते थे और उनके किसी भी मंदिर को उन्होंने नहीं लूटा।

 

 गरीबों के साथ कोई भी जबरदस्ती उन्होंने नहीं की इसके उलट अमीर वजीर और चौधरीयो को उन्होंने लूटा और उनसे हथियार घोड़े और अनाज प्राप्त किया।

 

 और वहां के नौजवानों को अपनी फौज में भर्ती भी किया यह नौजवान अपने इलाके के हर रास्ते को जानते थे और उन्होंने जोरावर सिंह को उन चौधरीयो के बारे में बताया जिन्होंने गरीबों को लूट लूट कर काफी पैसा इकट्ठा किया हुआ था।

 

 उन चौधरीयो को लूटने के बाद वह उस पैसे को गरीबों में बांट देते थे इसी कारण से वहां के स्थानीय लोग सिखों की मदद करने लगे और उनके गुणगान करने लगे।

 

 सिख फौज  जबरदस्ती किसी का धर्म तब्दील नहीं करती थी ना ही किसी के साथ ऊंच-नीच वाला व्यवहार करती थी इसी काम के चलते सिख फौज को बहुत बड़ी कामयाबी मिल जाती थी ।

 

 सरदार जोरावर सिंह और उनके ताकतवर साथियों के कारण ही उन्होंने आधे से ज्यादा तिब्बत के ऊपर कब्जा कर लिया था वह नेपाल की तरफ आगे भी बढ़ सकते थे उधर चीन की सरहद तक पहुंच चुके थे और हिमालय पर्वत की चोटी पर खड़े होकर जयकारे लगाते थे।

 

 सिख फौज की बहादुरी को देख लद्दाख की फौज मन ही मन घबराई हुई थी जिस तेजी से सिक्ख आगे बढ़ रहे थे। एक दिन लद्दाख की फौज सिख फौज  के साथ मुकाबला करने के लिए अगलवंडे पहुंच गई और मोर्चे लगा लिए।

 इन दोनों फोजों के बीच में एक नदी बहती थी दोनों फौजे एक दूसरे को युद्ध के लिए ललकार रही थी उस समय सर्दी का मौसम चल रहा था उन इलाकों में बहुत ज्यादा ठंड पड़ती है ।

 

 जब रात का समय हुआ तो लद्दाख की फौज ने आग जलाई और विश्राम करने लगे  कुछ सिपाहियों को देखभाल करने की ड्यूटी लगा दी ताकि सिख रात को हमला न कर सके।

 

 उसी रात जोरावर सिंह ने अपने 100 से ज्यादा सिपाहियों को चुपके से उस लड़ाई के मैदान से पीछे हटा लिया वहां से तकरीबन 1 किलोमीटर दूर उन्होंने लकड़ी का एक छोटा सा पुल बना लिया उस नदी के ऊपर।

 

 उस नदी पर पुल बनाने के बाद जोरावर सिंह ने एक-एक सिपाही को कम से कम वजन लेकर उस नदी के उस पार पहुंचा दिया जिस तरफ से लद्दाखी निश्चिंत होकर सो रहे थे।

 

 सिखों ने अचानक लद्दाख के उन फौजियों पर हमला कर दिया अचानक हुए इस हमले से वह घबरा गए कुछ तो लड़ते-लड़ते मारे गए और कुछ अंधेरे का फायदा लेते हुए वहां से भाग गए।

 

 इस युद्ध में सिखों के साथ लड़ाई करने वाला कोई सूरमा नहीं था इस फौजी का कमांडर पंखोपा सिखों से बहुत ज्यादा डर गया और नजदीक ही बढ़े हुए अपने घोड़े के ऊपर जाकर बैठ गया और घोड़े को एडी करने लगा कि वह तेज भागे परंतु घोड़ा अपने स्थान से हिल ही नहीं रहा था।

 

 पंखोंपा ने  अपने सेवक को आवाज दी और वह भागा भगा आया पंखोंपा ने अपने सेवक से कहा मेरा घोड़ा चल नहीं रहा जल्दी से इसके दो चार डंडे मारो ताकि हम यहां से अपनी जान बचाकर भाग सकें।नौकर ने अपने कमांडर पंखोंपा से कहा हम हार चुके हैं। अब हाथ खड़े करके हम अपनी जान बचा सकते हैं भाग कर हमें सिर्फ मौत ही मिलेगी।

 

 पंखोंपा ने अपने सेवक को गुस्से से कहा इस समय तुम्हारी फजूल बातें सुनने का समय नहीं है जल्दी से घोड़े को डंडा मार।लता की सिपाही ने डरते हुए अपने कमांडर से विनती की जब आप बहुत डरे हुए हैं घबराहट में आपने यह भी नहीं देखा कि घोड़े के पांव बंधे हुए हैं आप इतने घबराए हुए हैं कि बंधे हुए घोड़े को दौड़ना चाहते हैं।

 

 जो संभव नहीं है कृपया करके आप अपनी हार मानले और हथियार डाल दे और उसे कमांडर ने ऐसा ही किया अपने हथियार डाल दिए। उसकी यह घोड़े वाली बेवकूफी वाली हरकत पूरे लद्दाख में मशहूर हो गई लोग इस बात को सुनकर खूब हंसने लगे।

 उधर जनरल जोरावर सिंह लगातार सिख राज की सीमाओं को आगे बढ़ा रहा था अपनी बेशुमार जीतो जोरावर सिंह को अपने ऊपर बहुत भरोसा हो गया था।

 

 23 साल तककोई ऐसा सुरमा पैदा नहीं हुआ था जो जोरावर सिंह के साथ टक्कर ले सके जोरावर सिंह किस दिशा में भी चला जाता था वहां पर लाशों के ढेर लगा देता था।

 

 युद्ध के मैदान में जब जोरावर सिंह आ जाता था तो सिक्ख फौजी के हौसले और भी ज्यादा बुलंद हो जाते थे और दुश्मन फौज में दहशत फैल जाती थी।

 

 लद्दाख के फौजी ठिकानों में एक है दीप्ति सीमा के नजदीक टोक्यो इस स्थान पर दिसंबर के महीने बहुत ज्यादा ठंड होती है उसे ठंड को यहां पर रहने वाले आम नागरिक ही बर्दाश्त कर सकते हैं।

 

 लद्दाख और तिब्बत की फौज ने सिखों के खिलाफ जंग शुरू कर दी जरनैल जोरावर सिंह ने इस युद्ध में बहुत ज्यादा लापरवाही की वह अपनी ताकत को ज्यादा समझ रहे थे और दुश्मन की ताकत को कम।

 

 टोक्यो की 10000 से ज्यादा फौज में सिखों के ऊपर हमला कर दिया उसे समय सिर्फ उनके पास 500 सिख सिपाही थे उनके पास खाने-पीने का सामान भी नहीं था और ठंड भी बहुत ज्यादा पड़ रही थी यहां पर सिख फौजी की पहली हार हूं।

 

 उसके बाद जोरावर सिंह ने और 500 सिपाही युद्ध के मैदान में भेजें जोरावर सिंह यह भूल गया था कि 500 सिपाही 10000 की फौज का मुकाबला नहीं कर सकते।

 

 10 दिसंबर 1841 के दिन जोरावर सिंह खुद युद्ध के मैदान में कूद गए जोरावर सिंह को अपने आप पर बहुत भरोसा था जोरावर सिंह का युद्ध में चले जाना सिपाहियों का हौसला बढ़ाता था।

 

 यह युद्ध 2 दिन तक लगातार चलता रहा दोनों तरफ की फौज का बहुत सा नुकसान हुआ तीसरा दिन चढ़ते ही सिखों की शान का सूरज डूब गया।

 

 तीसरे दिन दोनों फोजों के बीच में आमने-सामने की लड़ाई शुरू हो गई सिक्खों का बारूद खत्म हो चुका था तलवारी टूट चुकी थी और लाशों के ढेर लगा चुके थे सरदार जोरावर सिंह जयकारे लगाते हुए दुश्मन फौज  के बीच मे अकेले जाकर घुस गए।

 

 दुश्मन फौज  के एक सिपाही ने निशाना लगाकर एक गोली चलाई जो जोरावर सिंह की टांग में जाकर लगी जोरावर सिंह ने फिर भी हार नहीं मानी और वह इस तरह दुश्मनो को मारता हुआ आगे बढ़ता रहा था ।

 

 जोरावर सिंह से डरते हुए दुश्मन फौज  का कोई भी सिपाही उनके नजदीक नहीं आता था एक और सिपाही ने निशाना लगाकर एक नेजा जोरावर सिंह की और फेका  जो की जोरावर सिंह के सीने के आर पार हो गया।

 

 उस हमले से जोरावर सिंह अपने घोड़े से नीचे गिर गए जोरावर सिंह के शहीद होने के बाद सिख फौज के हौसले टूट गए।

 

 जोरावर सिंह के शहीद होने के बाद तिब्बत की फौज के सिपाहियों ने जोरावर सिंह के बाल उखाड़ने शुरू कर दिए जब उनके कमांडर ने उनको ऐसा करने से रोका और उनसे यह पूछा तुम इन बालों का क्या करोगे।

 

 तब उन सिपाहियों ने बताया हम इनके बालों को अपनी पत्नियों के बाजू पर बांधे गे ताकी हमारे घर भी ऐसा बहादुर बच्चा पैदा हो और अपने घरों में संभाल कर रखेंगे हमारा विश्वास है कि इस तरह करने से हमारे घर में भी ऐसा बहादुर बच्चा पैदा होगा।

 

 यह बात सुनने के बाद तिब्बती कमांडर ने जोरावर सिंह की लाश को अपने कब्जे में ले लिया और जो कोई भी जोरावर सिंह का बाल या कोई शरीर का हिस्सा लेना चाहता है तो उसे उसकी कीमत देनी पड़े गी कमांडर ने उनसे पैसे लेने शुरू कर दिए।

 

 जोरावर सिंह के शहीद होने की सूचना जब वहां के लोगों को मिली तब वहां के लोग भीड़ के रूप में वहां पर आ पहुंचे उन लोगों ने जोरावर सिंह के शरीर का एक-एक हिस्सा खरीद लिया जिसको जो मिला किसी को हड्डी किसी को बाल जिसको जो मिला वह खरीद कर ले गए कुछ ही समय में जोरावर सिंह का पूरा शरीर बिक गया।

 

 तिब्बत के लोगों ने  जोरावर सिंह के एक हाथ को दफना दीया था आज उस स्थान पर उन्होंने एक मंदिर बनाया हुआ है वहा की ग्रभवती औरते आज भी उस मंदिर मे जाती है और उस मंदिर की परिक्रमा करती है और मन्नत मांगती है की उनके घर भी जोरावर जैसा बहादुर बच्चा पैदा हो  .

जहां पर जोरावर सिंह शहीद हुए थे आज भी वहां पर हर वर्ष मेला लगता है।

 सिख इतिहास में सरदार जोरावर सिंह का जिक्र बहुत कम आता है क्योंकि वह पहाड़ी इलाकों में जाकर लड़ते रहे हैं जहां पर आज के समय भी पहुंच पाना बहुत मुश्किल है यही कारण है कि उनके जीवन की वीर गाथा बहुत कम लोगों को पता है। 

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