new moral stories in hindi | उद्धव के सवाल दोस्तों स्वागत है आपका ज्ञान से भरी कहानियों की इस रोचक दुनिया मे। दोस्तों जीवन मे कहानियों का विशेस महत्तव होता है |
क्योकि इन कहानियो के माध्यम से हमे बहुत कुछ सीखने को मिलता है |
इन कहानियों के माध्यम से आपको ज़रूरी ज्ञान हासिल होंगे जो आपको आपकी लाइफ मे बहुत काम आएंगे |
यहाँ पर बताई गई हर कहानी से आपको एक नई सीख मिलेगी जो आपके जीवन मे बहुत काम आएगी | हर कहानी मे कुछ न कुछ संदेश और सीख (moral )छुपी हुई है |
तो ऐसी कहानियो को ज़रूर पढ़े और अपने दोस्तो और परिवारों मे भी ज़रूर शेयर करे |
तो चलिये शुरू करते है हमारी आज की कहानी
उद्धव के सवाल | new moral stories in hindi

दोस्तो यह एक सत्या घटना है महाभारत काल की | यह घटना है भगवान श्री कृष्ण और उद्धव के बीच हो रहे सवालो जवाबो से भरी वार्तालाप की जिसके द्वारा ईश्वर और कर्म का बहुत अच्छा ज्ञान जानने को मिलता है |
उद्धव बचपन से ही सारथी के रूप मे श्री कृष्ण जी की सेवा मे रहे | और उद्धव यह जानते हुए भी की ! “श्री कृष्ण जी असीम शक्तियों के स्वामी है अतः भगवान विष्णु के अवतार है” फिर भी मन मे कभी किसी यह इच्छा की भावना नहीं रखी,
“की ! मैं भी श्री कृष्ण जी से कुछ मांग लूँ | उद्धव कभी श्री कृष्ण जी से कोई वरदान न मांगा” |

अब श्री कृष्ण जी का धरती पर समय समाप्त होने को था, यानि उन्होने जो अवतार लिया था अब वह अवतार त्याग कर गौलोक जाने को तत्पर हुए |
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जाने से पहले वो उद्धव से मिलने को बहुत व्याकुल हुए क्योकि उद्धव ने बचपन से सारथी के रूप मे उनकी सेवा की ! अतः इस विचार से श्री कृष्ण जी उद्धव को कुछ वरदान देने को इच्छुक हुए “तब श्री कृष्ण जी ने उद्धव को अपने पास बुलाया और पूछा की ”
हे मेरे प्रिय उद्धव ! मेरे इस अवतारी काल मे कई लोगो ने मुझसे अपनी इच्छाए व्यक्त करते हुए वरदान मांगे , किन्तु तुमने अभी तक मुझसे कुछ नहीं मांगा अतः मैं तुमको तुम्हारी सेवा से पसन्न हो कर कुछ भी वरदान देना चाहता हूँ इस हेतु तुम मुझसे कोई वरदान मांगो उद्धव | वरदान स्वरूप तुम्हारी इच्छा पूर्ण करके मेरे मन को अती संतुस्टी पहुंचेगी |
इस समय उद्धव के मन मे बहुत से सवाल आ रहे थे जी की बहुत पहले से ही उद्धव इन सवालो के जवाब श्री कृष्ण जी से जानना चाहता था |
उद्धव गीता की new moral stories in hindi
उद्धव के मन मे भगवान श्री कृष्ण जी की लीलाओं को लेकर और महाभारत के सम्पूर्ण घटनाक्रम , कर्म कांड एवम दाइत्त्वों को लेकर अनेकों सवालो की उलझन थी |
तब उद्धव ! श्री कृष्ण जी की वरदान स्वरूप कुछ मांगने की बात सुन कर अपने मन मे चल रहे सवालो की पूर्ण संतुस्टी देने वाले जवाबो की इच्छा श्री कृष्ण जी के सामने प्रकट करते है |

उद्धव श्री कृष्ण जी से पूछा ! “भगवन महाभारत के घटनाक्रम में अनेकों बातें मैं नहीं समझ पाया! मैं उपदेशो और व्यक्तिगत जीवन के क्रियाओं आपस मे मिला नहीं पा रहा हूँ अतः मैं यह समझने मे असमर्थ हूँ
की आपके उपदेश और व्यक्तिगत जीवन आपस मे मेल क्यों नहीं खाते इन बातों को लेकर मेरे मन मे बहुत सी शंकाए जन्म लेती हैं | किरप्या मुझे मेरे सवालो का संतुस्टी पूर्ण जवाब देकर मुझे इन सवालो के माया जाल से मुक्त करें |
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उद्धव गीता की new moral stories in hindi
तब भगवान श्री कृष्ण जी बोले –
उद्धव मैंने कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन को जिन अध्यात्म बातों का ज्ञान दिया था , वह “भगवत गीता ” थी।
आगे चल कर गीता के इसी ज्ञान से इंसान अपनी समस्त इच्छाओ को संतुस्ट कर पाएगा , अपनी समस्त परेशानियों के मूल कारण को समझ पाएगा और मोह माया के बंधन से मुक्त हो कर जीवन मे परमानंद की प्राप्ति करेगा |
और आज जो कुछ तुम जानना चाहते हो , उसका मैं जो तुम्हें उत्तर दूँगा, वह संसार मे “उद्धव-गीता” के रूप में जानी जाएगी।
इसी महत्तव्कांशा को देखते हुए मैंने तुम्हें मौका दिया है की तुम सवाल पूछो ओर मैं उनका जवाब दू जो आगे चल कर समस्त प्राणियों के लिए एक जीवन मार्गदर्शन का काम करेगा |
यह सुन उद्धव ने अपना पहला सवाल पूछा –
हे कृष्ण, सबसे पहले मुझे यह बताओ कि सच्चा मित्र कौन होता है?
कृष्ण जी ने कहा:
सच्चा मित्र वह है जो जरूरत पड़ने पर मित्र की बिना माँगे, मदद करे।
उद्धव:
हे कृष्ण ! आप पांडवों के अती स्नेही और प्रिय मित्र रहे हो । इस प्रेम मे पांडवो को आप पर परम विश्वास और भरोसा रहा है |
और इसमे कोई संदेह नहीं की आप महान ज्ञानी हैं। आप भूत, वर्तमान व भविष्य के ज्ञाता हैं।
उद्धव के सवाल | new moral stories in hindi
किन्तु हे कृष्ण अभी आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा बताई है, क्या आपको नहीं लगता कि आपने उस परिभाषा के अनुसार कार्य नहीं किया? मित्रता नहीं निभाई ?
आप जानते थे की कौरवों और पांडवों के बीच होने वाली इस दूत क्रीड़ा (जूएँ का खेल) का अंजाम कुछ समय बाद उस सभा मे और भविस्य मे क्या होने वाला है फिर भी आपने धर्मराज युधिष्ठिर को द्यूत (जुआ) खेलने से क्यों नहीं रोका ?
चलो ठीक है कि आपने उन्हें नहीं रोका, आप सर्व शक्तिमान थे तो फिर आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में क्यों नहीं मोड़ा ?
आप चाहते तो युधिष्ठिर जीत सकते थे! शकुनि की कपटी चाल मे फस कर धर्मराज सब कुछ दांव पर लगा बैठे देखते ही देखते धर्मराज अपनी धन संपत्ति उस जुए मे हार गए |
फिर इसके बाद वह धर्मराज ने खुद और द्रोपदी तक को दांव पर लगा दिया तब तो आपको रोकना चाहिए था ,
तब भी आपने कोई हस्तक्षेप क्यों नही किया ?
आप चाहते तो अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा आप पांसे धर्मराज के अनुकूल कर सकते थे! इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया, जब द्रौपदी लगभग अपना शील खो रही थी, अर्ध नग्न अवस्था तक पहुँच चुकी थी |
तब जाकर आपने द्रोपदी को वस्त्र देकर द्रोपदी को उस सभा मे नग्न होने से बचाया अतः उसकी इज्ज़त का बचाव किया |
किन्तु तब भी आप यह दावा कैसे कर सकते हैं की आपने मित्रता निभाई ?
तो बताईए, आपको सच्चा मित्र कैसे कहा जाएगा आपने संकट के समय में मदद नहीं की तो क्या फायदा?
क्या यही धर्म है?”
इन प्रश्नों को पूछते-पूछते उद्धव इस कदर भावुकता से भर उठे की उनका गला रुँध गया आवाज बैठ गई और आँखों से आँसू बहने लगे।
दोस्तों ये अकेले उद्धव के प्रश्न नहीं थे । महाभारत पढ़ते समय हर एक के मन में ये सवाल उठते हैं! उद्धव ने हम लोगों की ओर से ही श्रीकृष्ण जी से उक्त प्रश्न किए।
तो चलिये अब जानते है श्री कृष्ण जी इस पर क्या बोले ?
उद्धव के सवाल | new moral stories in hindi
भगवान श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए बोले:
प्रिय उद्धव, यह सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है।
उस समय दुर्योधन के पास विवेक था, धर्मराज के पास नहीं।
शकुनि के विवेकशील होने का सबसे बड़ा कारण उसके पासे थे क्योकि वो पासे मायावी थे जो की शकुनि का कहना मानते थे,
अतः शकुनि जैसा भी अंक लाना चाहता वह उन पासो के जरिये ला देता |
इस वजह से शकुनि जानता था की यह जुआ तो शकुनि ही जीतेगा |यही कारण रहा कि धर्मराज पराजित हुए।
अब ऐसे मे भला मैं मित्रता को हथियार बनाकर श्रिष्टि का नियम कैसे तोड़ सकता था?
उद्धव को हैरान परेशान देखकर कृष्ण जी आगे बोले:
दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए पैसा और धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था,
इसलिए उसने अपने मामा शकुनि का द्यूतक्रीड़ा के लिए उपयोग किया। इस प्रकार दुर्योधन के पास भी विवेक था उस खेल को जीतने का |
धर्मराज भी इसी प्रकार सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई यानि मुझसे यह प्रार्थना कर सकते थे की पांडव की तरफ से कृष्ण खेले | लेकिन ऐसा नहीं हुआ
जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता?
क्योकि मैं शकुनि की चाल और इच्छाए सब जानता था
पाँसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार?
चलो इस बात को जाने दो। उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इस बात के लिए उन्हें माफ़ किया जा सकता है।
लेकिन उन्होंने विवेक-शून्यता से एक और बड़ी गलती की!
और वह यह –
उन्होंने मुझसे प्रार्थना की ! कि मैं तब तक सभा-कक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए!क्योंकि वे अपने दुर्भाग्य से खेल मुझसे छुपकर खेलना चाहते थे।
उद्धव गीता की new moroal stories in hindi
वे नहीं चाहते थे, मुझे मालूम पड़े कि वे जुआ खेल रहे हैं!
इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया! मुझे सभा-कक्ष में आने की अनुमति नहीं थी!
इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर इंतज़ार कर रहा था कि कब कोई मुझे बुलाता है! भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए! बस अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे!
अपने भाई के आदेश पर जब दुस्साशन द्रौपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-कक्ष में लाया, द्रौपदी अपनी सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही!
तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा!
उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुस्साशन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया!
जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर –‘हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम’
की गुहार लगाई, तब मुझे उसके शील की रक्षा का अवसर मिला।
जैसे ही मुझे पुकारा गया, मैं अविलम्ब पहुँच गया।
अब इस स्थिति में मेरी गलती बताओ?” “उद्धव”
यह सुन उद्धव बोले:
कान्हा आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई!
क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ?
कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा:
इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा? क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे?
कृष्ण जी मुस्कुराए:
उद्धव इस सृष्टि में हरेक का जीवन उसके स्वयं के कर्मफल के आधार पर संचालित होता है।
न तो मैं इसे चलाता हूँ, और न ही इसमें कोई हस्तक्षेप करता हूँ। मैं न तो
किसी के द्वारा किए जा रहे कर्म मे हस्तकक्षेप करता हूँ और न ही उस कर्म से मिलने वाले परिणामो मे |
मैं केवल एक ‘साक्षी’ हूँ।
मैं सदैव तुम्हारे नजदीक रहकर जो हो रहा है उसे देखता हूँ। मैं तुम्हारे भक्ति भाव और विश्वास को भी देखता हूँ |
यही ईश्वर का धर्म है।
उलाहना देते हुए उद्धव ने पूछा!
वाह-वाह, बहुत अच्छा कृष्ण!
तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी दुष्कर्मों का निरीक्षण करते रहेंगे?
हम पाप पर पाप करते रहेंगे, और आप हमें साक्षी बनकर देखते रहेंगे?
आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते रहें? पाप की गठरी बाँधते रहें और उसका फल भुगतते रहें?
उद्धव के सवाल | new moral stories in hindi
तब कृष्ण जी बोले:
उद्धव, तुम शब्दों के गहरे अर्थ को समझो।
जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे नजदीक साक्षी के रूप में हर पल हूँ,
तो क्या तुम कुछ भी गलत या बुरा कर सकोगे?
तुम निश्चित रूप से कुछ भी बुरा नहीं कर सकोगे।
जब तुम यह भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तब ही तुम बुरे कर्मो की माया में फँसते हो!
धर्मराज का अज्ञान यह था कि उसने माना कि वह मेरी जानकारी के बिना जुआ खेल सकता है!
अगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक के साथ हर समय साक्षी रूप में उपस्थित हूँ तो क्या खेल का रूप कुछ और नहीं होता?
जैसा की मैंने पहले भी कहा की मैं किसी के कर्मो मे हस्तकक्षेप नहीं करता जो जैसा चल रहा चलता ही रहेगा कर्मो का परिणाम तो भोगना ही पड़ेगा “उद्धव” चाहे वो अच्छा हो या बुरा |
यदि किसी की भी मुझ पर सच्ची श्रद्धा , विश्वास और निष्ठा होती है तो वह बुरे कर्म कर ही नहीं सकता.
कभी किसी का बुरा कर ही नहीं सकता क्योकि उसके दिमाग मे हर पल यह रहेगा की भगवान कण कण मे है और मुझे देख रहे है |
तो ऐसे भक्तो पर मेरी किरपा बरसती रहती है मेरा आशीर्वाद बना रेहता है |
सदैव ऐसे लोगो की मैं रक्षा करता हूँ उन्हें मुसीबत से बाहर निकालता हु.
जब भी वो मुझे पुकारते है मैं किसी न किसी रूप मैं जरूर उनकी मदद करता हूँ उनके दुखो को हरता हूँ |
भक्ति से अभिभूत उद्धव मंत्रमुग्ध हो गये और बोले:
प्रभु कितना गहरा दर्शन है। कितना महान सत्य। ‘प्रार्थना’ और ‘पूजा-पाठ’ से, ईश्वर को अपनी मदद के लिए बुलाना तो महज हमारी ‘पर-भावना’ है।
मग़र जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि ‘ईश्वर’ के बिना पत्ता भी नहीं हिलता! तब हमें साक्षी के रूप में उनकी उपस्थिति महसूस होने लगती है।
गड़बड़ तब होती है, जब हम इसे भूलकर दुनियादारी (सांसारिक मोह माया) में डूब जाते हैं।
सम्पूर्ण श्रीमद् भागवद् गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसी जीवन-दर्शन का ज्ञान दिया है।
सारथी का अर्थ है- मार्गदर्शक।
अर्जुन के लिए सारथी बने श्रीकृष्ण वस्तुतः उसके मार्गदर्शक थे।
महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन मे युद्ध की योग्यता तो थी लेकिन वो योग्यता रिश्तो की भावुकता के पहाड़ तले दबी हुई थी,
जिसके लिए अर्जुन को मैंने अपने भ्रमह स्वरूप के दर्शन करवाने के बाद अर्जुन का मन सांसारिक मोह माया और पारिवारिक मोह माया से हटाने के लिए, तथा आत्म ज्ञान की सच्चाई से अवगत करवाने के लिए,
मुझे अर्जुन दिव्य दृष्टि दे कर उसे अपने विराट स्वरुप के दर्शन देने पड़े, साथ ही आने वाले युगो मे मनुष्य के कल्याण के लिए श्री भगवत गीता का उपदेश देना पड़ा.
उद्धव जी श्री कृष्ण जी से यह पूछते है की हे परम ज्ञाता कृष्ण ! मेरे कुछ मित्र है जिनमे से मेरे साथ ऐसा हुआ की मैंने उनसे जब कुछ मांगा है तो कई बार मुझे मेरी चीज उनसे न मिलने पर मैं उनसे नाराज या दुखी या क्रोधित क्यों हो जाता हूँ.
ऐसे मे उनके बारे दुश्मनी जैसे विचार मेरे मन मे आने लग जाते जबकि दूसरी तरफ ऐसा जब मेरे परिवार मे मेरे साथ होता है तब ऐसी कोई भावना मन मे नहीं आती जबकि प्यार मैं दोस्तो से भी उतना ही करता हूँ |
मित्र भी मेरे बहुत अच्छे हैं और मुसीबत मे साथ भी देते है |
तो ऐसा क्यों ? किरप्य जवाब दे ?
तब भगवान कृष्ण जवाब देते है –
हे उद्धव ! तुम्हारे मन मे अपने दोस्तो के प्रति आने वाली इन भावनाओ की मुख्य वजह तुम्हारी उनके प्रति उम्मीदे है |
अक्सर इंसान जब किसी से किसी चीज को लेकर उम्मेद लगा लेता है की वह इसे जरूर पूरा केरगा और जब घटना इसके विपरीत होती है यानि की सामने वाला उसकी उम्मीद से उल्टा निकलता है तो ऐसे मे मन मे क्रोध भावना का जन्म होना निश्चित है | क्योकि उम्मीद एक ऐसी मानसिक क्रिया है जो स्करात्मक और नकारात्मक दोनों है
जब आप खुद से कोई उम्मीद लगाते है तो यह एक सकारात्मक ऊर्जा के तौर पर कार्य करती है इसलिए इसमे जब आप खुद तमाम कोशिशों के बावजूद अपनी उम्मीद पर खरे नही उतरते तो आपको कभी खुद पर गुस्सा नहीं आता |
ठीक दूसरी तरफ जब किसी अन्य पर उम्मीद लगते है तो यह नकारात्मक मानसिक क्रिया यानि एक नकारात्मक ऊर्जा बन जाती है जिस वजह से आपके मन मे उस इंसान (रिश्तो के प्रति) के प्रति क्रोध भावना पैदा होती है जिससे रिश्तो को लेकर कलेस होता है ओर रिश्ते टूट जाते है |
अब रही बात परिवार की तो उस स्थिति मे आप अपने परिवार के प्रति निःस्वार्थ प्रेम की भावना केपवित्र बंधन मे बंधे होते है ऐसे मे आप अपने परिवार से इतना प्रेम करते हैं की उम्मीद पूरी न होने पर भी आपके मे परिवार के प्रति दुश्मनी भावना नहीं आएगी बल्कि गुस्सा आएगा
जो की कुछ समय के लिए ही होगा क्योकि इसमे परिवार के प्रति सकारात्मक ऊर्जा मन मे उम्मीद पूरी न होने की नकारात्मक ऊर्जा को दबा देती है |
यही कारण है की परिवार के प्रति ऐसी भावना नहीं आती |
यदि मित्रता की भावना भी ऐसे ही पारिवारिक प्रेम के प्रति अटूट और निःस्वार्थ हो तो मन मे किसी प्रकार की उम्मीद भावना आहि नहीं सकती |
ओर अगर आती भी है तो उसके पूर्ण न होने पर मन मे रिश्तो को लेकर कोई गलत कलेस की भावना नहीं जन्म लेती
तो दोस्तो इन बातों से हमे यह सीखने को मिलता है चाहे परिवार हो या दोस्ती कभी किसी दूसरे से उम्मीदे न लगाओ क्योकि दूसरों पर लगाई गई उम्मीद एक नकारात्मक ऊर्जा के तौर पर कार्य करती है जो की क्लेश और विवाद भावना का कारण बनती है |
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